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9/01/2012

सिपाही

                  
                   रचनाकार:    रामधारी सिंह "दिनकर"

                                                                                                             













































































































































































वनिता की ममता न हुई, सुत का न मुझे कुछ छोह हुआ,
ख्याति, सुयश, सम्मान, विभव का, त्यों ही, कभी न मोह हुआ।
जीवन की क्या चहल-पहल है, इसे न मैने पहचाना,
सेनापति के एक इशारे पर मिटना केवल जाना।

मसि की तो क्या बात? गली की ठिकरी मुझे भुलाती है,
जीते जी लड़ मरूं, मरे पर याद किसे फिर आती है?
इतिहासों में अमर रहूँ, है एसी मृत्यु नहीं मेरी,
विश्व छोड़ जब चला, भुलाते लगती फिर किसको देरी?

जग भूले पर मुझे एक, बस सेवा धर्म निभाना है,
जिसकी है यह देह उसी में इसे मिला मिट जाना है।
विजय-विटप को विकच देख जिस दिन तुम हृदय जुड़ाओगे,
फूलों में शोणित की लाली कभी समझ क्या पाओगे?

वह लाली हर प्रात क्षितिज पर आ कर तुम्हे जगायेगी,
सायंकाल नमन कर माँ को तिमिर बीच खो जायेगी।
देव करेंगे विनय किंतु, क्या स्वर्ग बीच रुक पाऊंगा?
किसी रात चुपके उल्का बन कूद भूमि पर आऊंगा।

तुम न जान पाओगे, पर, मैं रोज खिलूंगा इधर-उधर,
कभी फूल की पंखुड़ियाँ बन, कभी एक पत्ती बन कर।
अपनी राह चली जायेगी वीरों की सेना रण में,
रह जाऊंगा मौन वृंत पर, सोच न जाने क्या मन में!

तप्त वेग धमनी का बन कर कभी संग मैं हो लूंगा,
कभी चरण तल की मिट्टी में छिप कर जय जय बोलूंगा।
अगले युग की अनी कपिध्वज जिस दिन प्रलय मचाएगी,
मैं गरजूंगा ध्वजा-श्रंग पर, वह पहचान न पायेगी।

'न्यौछावर मैं एक फूल पर', जग की ऎसी रीत कहाँ?
एक पंक्ति मेरी सुधि में भी, सस्ते इतने गीत कहाँ?

कविते! देखो विजन विपिन में वन्य कुसुम का मुरझाना,
व्यर्थ न होगा इस समाधि पर दो आँसू कण बरसाना।


8/30/2012

ठुकरा दो या प्यार करो


Subhadra Kumari Chauhan


जंग में हूँ बहार मुश्किल है

       रचनाकार: अनिरुद्ध सिन्हा

जंग में हूँ बहार मुश्किल है
दस्ते-क़ातिल का प्यार मुश्किल है

फिर तसल्ली सवाल बन जाए
फिर तेरा इंतज़ार मुश्किल है

ख़त गया है जवाब आने तक
बीच का अख़्तियार मुश्किल है

उँगलियों का सलाम हाज़िर है
सादगी का सिंगार मुश्किल है

है ये मुमकिन तनाव देखें वो
देख लेंगे दरार मुश्किल है

घर की नाज़ुक बातों से

             रचनाकार: अनिरुद्ध सिन्हा

घर की नाज़ुक बातों से समझाते हैं
आँखों के पत्थर भी नम हो जाते हैं

शासन के वैसे हम एक बिजूका हैं
बच्चे जिस पर पत्थर तेज़ चलाते हैं

नोच वही देते हैं सारी तस्वीरें
अपने भीतर सोच नहीं जो पाते हैं

रात भटकती, सुबह सरकती साँसों पर
दुविधाओं के जंगल भी उग आते हैं

परजीवी आकाश पकड़ती दुनिया के
खूनी पंजे वाले हाथ बढ़ाते हैं!

गुज़रे दिनों

                       रचनाकार: अनिरुद्ध सिन्हा

गुज़रे दिनों की एक मुकम्मल क़िताब हूँ
पन्ने पलट के देखिए मैं इंकलाब हूँ

मुमकिन पतों के बाद भी पहुँचे न जो कभी
वैसे ख़तों का लौट के आया जवाब हूँ

ऐसा लगा कि झूठ भी सच बोलने लगा
पीकर न होश में रहे, मैं वो शराब हूँ

हद से कहीं हँसा न दें मेरी कहानियाँ
इक मुख़्तसर-सी रात का नन्हा-सा ख़्वाब हूँ

माली ने ही सलीके से टहनी मरोड़ दी
इल्ज़ाम सिर लगा मेरे, मैं तो गुलाब हूँ!

8/29/2012

इस मफ़लिसी के दौर से बचकर रहा करे

                                                             रचनाकार: अनिरुद्ध सिन्हा
इस मफ़लिसी के दौर से बचकर रहा करे
बाहर ज़मीं की धूल है अंदर रहा करे ।

दहलीज़ को खंगालती रहती हैं बारिशें
मिट्टी के इन घरों में भी छप्पर रहा करे ।

जिससे कि चाँद ख़्वाब के दामन में रह सके
आँखों में वो यक़ीन का मंज़र रहा करे ।

रिश्तों को आँख से नहीं इतना गिराइए
कुछ तो बिछुड़ के मिलने का अवसर रहा करे ।

गलियों में एहतियात के नारों के बावजूद
तहदारियों के हाथ में पत्थर रहा करे ।

अपने भीतर झाँक लें अपनी कमी को देख लें

                                             By अनिरुद्ध सिन्हा

अपने भीतर झाँक लें अपनी कमी को देख लें
इस लतीफ़ों के शहर में ज़िन्दगी को देख लें ।

तालियों के शोर में उनकी सहज मुस्कान में
दर्द का काँटा चुभाकर रहबरी को देख लें ।

प्यार से छूकर गया जो गूँथकर चिंगारियाँ
वक़्त के पहलू में वैसे अजनबी को देख लें ।

रंग आवाज़ों के बदलेंगे उछालो रोटियाँ
एक मुद्दत से खड़ी इस मफ़लिसी को देख लें ।

कब तलक गर्दन हमारी न्याय-मंचों तक रहे
सिलपटों में इस व्यथा की वर्तनी को देख लें ।