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9/20/2012

भाई - बहन

                                   
                                                 रचनाकार: गोपाल सिंह नेपाली
तू चिंगारी बनकर उड़ री, जाग-जाग मैं ज्वाल बनूँ,
तू बन जा हहराती गँगा, मैं झेलम बेहाल बनूँ,
आज बसन्ती चोला तेरा, मैं भी सज लूँ लाल बनूँ,
तू भगिनी बन क्रान्ति कराली, मैं भाई विकराल बनूँ,
यहाँ न कोई राधारानी, वृन्दावन, बंशीवाला,
...तू आँगन की ज्योति बहन री, मैं घर का पहरे वाला ।

बहन प्रेम का पुतला हूँ मैं, तू ममता की गोद बनी,
मेरा जीवन क्रीड़ा-कौतुक तू प्रत्यक्ष प्रमोद भरी,
मैं भाई फूलों में भूला, मेरी बहन विनोद बनी,
भाई की गति, मति भगिनी की दोनों मंगल-मोद बनी
यह अपराध कलंक सुशीले, सारे फूल जला देना ।
जननी की जंजीर बज रही, चल तबियत बहला देना ।

भाई एक लहर बन आया, बहन नदी की धारा है,
संगम है, गँगा उमड़ी है, डूबा कूल-किनारा है,
यह उन्माद, बहन को अपना भाई एक सहारा है,
यह अलमस्ती, एक बहन ही भाई का ध्रुवतारा है,
पागल घडी, बहन-भाई है, वह आज़ाद तराना है ।
मुसीबतों से, बलिदानों से, पत्थर को समझाना है ।

दीपक जलता रहा रातभर


                             रचनाकार: गोपाल सिंह नेपाली
तन का दिया, प्राण की बाती,
दीपक जलता रहा रात-भर ।

दु:ख की घनी बनी अँधियारी,
सुख के टिमटिम दूर सितारे,
उठती रही पीर की बदली,
मन के पंछी उड़-उड़ हारे ।

बची रही प्रिय की आँखों से,
मेरी कुटिया एक किनारे,
मिलता रहा स्नेह रस थोडा,
दीपक जलता रहा रात-भर ।

दुनिया देखी भी अनदेखी,
नगर न जाना, डगर न जानी;
रंग देखा, रूप न देखा,
केवल बोली ही पहचानी,

कोई भी तो साथ नहीं था,
साथी था ऑंखों का पानी,
सूनी डगर सितारे टिमटिम,
पंथी चलता रहा रात-भर ।

अगणित तारों के प्रकाश में,
मैं अपने पथ पर चलता था,
मैंने देखा, गगन-गली में,
चाँद-सितारों को छलता था ।

आँधी में, तूफ़ानों में भी,
प्राण-दीप मेरा जलता था,
कोई छली खेल में मेरी,
दिशा बदलता रहा रात-भर ।

तू पढ़ती है मेरी पुस्तक


                                                  रचनाकार: गोपाल सिंह नेपाली
तू पढ़ती है मेरी पुस्तक, मैं तेरा मुखड़ा पढ़ता हूँ
तू चलती है पन्ने-पन्ने, मैं लोचन-लोचन बढ़ता हूँ

मै खुली क़लम का जादूगर, तू बंद क़िताब कहानी की
मैं हँसी-ख़ुशी का सौदागर, तू रात हसीन जवानी की
तू श्याम नयन से देखे तो, मैं नील गगन में उड़ता हूँ
तू पढ़ती है मेरी पुस्तक, मैं तेरा मुखड़ा पढ़ता हूँ ।

तू मन के भाव मिलाती है, मेरी कविता के भावों से
मैं अपने भाव मिलाता हूँ, तेरी पलकों की छाँवों से
तू मेरी बात पकड़ती है, मैं तेरा मौन पकड़ता हूँ
तू पढ़ती है मेरी पुस्तक, मैं तेरा मुखड़ा पढ़ता हूँ ।

तू पृष्ठ-पृष्ठ से खेल रही, मैं पृष्ठों से आगे-आगे
तू व्यर्थ अर्थ में उलझ रही, मेरी चुप्पी उत्तर माँगे
तू ढाल बनाती पुस्तक को, मैं अपने मन से लड़ता हूँ
तू पढ़ती है मेरी पुस्तक, मैं तेरा मुखड़ा पढ़ता हूँ ।

तू छंदों के द्वारा जाने, मेरी उमंग के रंग-ढंग
मैं तेरी आँखों से देखूँ, अपने भविष्य का रूप-रंग
तू मन-मन मुझे बुलाती है, मैं नयना-नयना मुड़ता हूँ
तू पढ़ती है मेरी पुस्तक, मैं तेरा मुखड़ा पढ़ता हूँ ।

मेरी कविता के दर्पण में, जो कुछ है तेरी परछाईं
कोने में मेरा नाम छपा, तू सारी पुस्तक में छाई
देवता समझती तू मुझको, मैं तेरे पैयां पड़ता हूँ
तू पढ़ती है मेरी पुस्तक, मैं तेरा मुखड़ा पढ़ता हूँ ।

तेरी बातों की रिमझिम से, कानों में मिसरी घुलती है
मेरी तो पुस्तक बंद हुई, अब तेरी पुस्तक खुलती है
तू मेरे जीवन में आई, मैं जग से आज बिछड़ता हूँ
तू पढ़ती है मेरी पुस्तक, मैं तेरा मुखड़ा पढ़ता हूँ ।

मेरे जीवन में फूल-फूल, तेरे मन में कलियाँ-कलियाँ
रेशमी शरम में सिमट चलीं, रंगीन रात की रंगरलियाँ
चंदा डूबे, सूरज डूबे, प्राणों से प्यार जकड़ता हूँ
तू पढ़ती है मेरी पुस्तक, मैं तेरा मुखड़ा पढ़ता हूँ ।

9/18/2012

गरीब का सलाम ले

                            रचनाकार: गोपाल सिंह नेपाली

कर्णधार तू बना तो हाथ में लगाम ले
क्राँति को सफल बना नसीब का न नाम ले
भेद सर उठा रहा मनुष्य को मिटा रहा
गिर रहा समाज आज बाजुओं में थाम ले
त्याग का न दाम ले
दे बदल नसीब तो ग़रीब का सलाम ले

यह स्वतन्त्रता नहीं कि एक तो अमीर हो
दूसरा मनुष्य तो रहे मगर फकीर हो
न्याय हो तो आर-पार एक ही लकीर हो
वर्ग की तनातनी न मानती है चाँदनी
चाँदनी लिए चला तो घूम हर मुकाम ले
त्याग का न दाम ले
दे बदल नसीब तो ग़रीब का सलाम ले

9/07/2012

तारे चमके, तुम भी चमको

                                                   रचनाकार: गोपाल सिंह नेपाली

तारे चमके, तुम भी चमको, अब बीती रात न लौटेगी,
लौटी भी तो एक दिन फिर यह, हम दो के साथ न लौटेगी ।

जब तक नयनों में ज्योति जली, कुछ प्रीत चली कुछ रीत चली,
हो जाएँगे जब बंद नयन, नयनों की घात न लौटेगी ।

मन देकर भी तन दे बैठे, मरने तक जीवन दे बैठे,
होगा फिर जनम-मरण होगा, पर वह सौगात न लौटेगी ।

एक दिन को मिलने साजन से, बारात उठेगी आँगन से,
शहनाई फिर बज सकती है, पर यह बारात न लौटेगी ।

क्या पूरब है, क्या पश्चिम है, हम दोनों हैं और रिमझिम है,
बरसेगी फिर यह श्याम घटा, पर यह बरसात न लौटेगी ।

कुछ ऐसा खेल रचो साथी

                                           रचनाकार: गोपाल सिंह नेपाली
                     
कुछ ऐसा खेल रचो साथी!
कुछ जीने का आनंद मिले
कुछ मरने का आनंद मिले
दुनिया के सूने आँगन में, कुछ ऐसा खेल रचो साथी !

वह मरघट का सन्नाटा तो रह-रह कर काटे जाता है
दुःख दर्द तबाही से दबकर, मुफ़लिस का दिल चिल्लाता है
यह झूठा सन्नाटा टूटे
पापों का भरा घड़ा फूटे
तुम ज़ंजीरों की झनझन में, कुछ ऐसा खेल रचो साथी !

यह उपदेशों का संचित रस तो फीका-फीका लगता है
सुन धर्म-कर्म की ये बातें दिल में अंगार सुलगता है
चाहे यह दुनिया जल जाए
मानव का रूप बदल जाए
तुम आज जवानी के क्षण में, कुछ ऐसा खेल रचो साथी !

यह दुनिया सिर्फ सफलता का उत्साहित क्रीड़ा-कलरव है
यह जीवन केवल जीतों का मोहक मतवाला उत्सव है
तुम भी चेतो मेरे साथी
तुम भी जीतो मेरे साथी
संघर्षों के निष्ठुर रण में, कुछ ऐसा खेल रचो साथी !

जीवन की चंचल धारा में, जो धर्म बहे बह जाने दो
मरघट की राखों में लिपटी, जो लाश रहे रह जाने दो
कुछ आँधी-अंधड़ आने दो
कुछ और बवंडर लाने दो
नवजीवन में नवयौवन में, कुछ ऐसा खेल रचो साथी !

जीवन तो वैसे सबका है, तुम जीवन का शृंगार बनो
इतिहास तुम्हारा राख बना, तुम राखों में अंगार बनो
अय्याश जवानी होती है
गत-वयस कहानी होती है
तुम अपने सहज लड़कपन में, कुछ ऐसा खेल रचो साथी !

9/06/2012

कवि की बरसगाँठ

                                   रचनाकार: गोपाल सिंह नेपाली
उन्तीस वसन्त जवानी के, बचपन की आँखों में बीते
झर रहे नयन के निर्झर, पर जीवन घट रीते के रीते
          बचपन में जिसको देखा था
          पहचाना उसे जवानी में
          दुनिया में थी वह बात कहाँ
          जो पहले सुनी कहानी में
          कितने अभियान चले मन के
          तिर-तिर नयनों के पानी में
          मैं राह खोजता चला सदा
          नादानी से नादानी में
मैं हारा, मुझसे जीवन में जिन-जिनने स्नेह किया, जीते
उन्तीस वसन्त जवानी के, बचपन की आँखों में बीते

9/05/2012

उस पार

                         रचनाकार: गोपाल सिंह नेपाली

उस पार कहीं बिजली चमकी होगी
जो झलक उठा है मेरा भी आँगन ।

उन मेघों में जीवन उमड़ा होगा
उन झोंकों में यौवन घुमड़ा होगा
उन बूँदों में तूफ़ान उठा होगा
कुछ बनने का सामान जुटा होगा
         उस पार कहीं बिजली चमकी होगी
         जो झलक उठा है मेरा भी आँगन ।

तप रही धरा यह प्यासी भी होगी
फिर चारों ओर उदासी भी होगी
प्यासे जग ने माँगा होगा पानी
करता होगा सावन आनाकानी
         उस ओर कहीं छाए होंगे बादल
         जो भर-भर आए मेरे भी लोचन ।

मैं नई-नई कलियों में खिलता हूँ
सिरहन बनकर पत्तों में हिलता हूँ
परिमल बनकर झोंकों में मिलता हूँ
झोंका बनकर झोंकों में मिलता हूँ
         उस झुरमुट में बोली होगी कोयल
         जो झूम उठा है मेरा भी मधुबन ।

मैं उठी लहर की भरी जवानी हूँ
मैं मिट जाने की नई कहानी हूँ
मेरा स्वर गूँजा है तूफ़ानों में
मेरा जीवन आज़ाद तरानों में
         ऊँचे स्वर में गरजा होगा सागर
         खुल गए भँवर में लहरों के बंधन ।

मैं गाता हूँ जीवन की सुंदरता
यौवन का यश भी मैं गाया करता
मधु बरसाती मेरी वाणी-वीणा
बाँटा करती समता-ममता-करुणा
         पर आज कहीं कोई रोया होगा
         जो करती वीणा क्रंदन ही क्रंदन ।

अपनेपन का मतवाला

                                 रचनाकार: गोपाल सिंह नेपाली
                            
अपनेपन का मतवाला था भीड़ों में भी मैं
खो न सका
चाहे जिस दल में मिल जाऊँ इतना सस्ता
मैं हो न सका

देखा जग ने टोपी बदली
तो मन बदला, महिमा बदली
पर ध्वजा बदलने से न यहाँ
मन-मंदिर की प्रतिमा बदली

मेरे नयनों का श्याम रंग जीवन भर कोई
धो न सका
चाहे जिस दल में मिल जाऊँ इतना सस्ता
मैं हो न सका

हड़ताल, जुलूस, सभा, भाषण
चल दिए तमाशे बन-बनके
पलकों की शीतल छाया में
मैं पुनः चला मन का बन के

जो चाहा करता चला सदा प्रस्तावों को मैं
ढो न सका
चाहे जिस दल में मिल जाऊँ इतना सस्ता
मैं हो न सका

दीवारों के प्रस्तावक थे
पर दीवारों से घिरते थे
व्यापारी की ज़ंजीरों से
आज़ाद बने वे फिरते थे

ऐसों से घिरा जनम भर मैं सुखशय्या पर भी
सो न सका
चाहे जिस दल में मिल जाऊँ इतना सस्ता
मैं हो न सका

9/04/2012

अजनबी की आवाज़


                                   रचनाकार: आरसी प्रसाद सिंह

आपके इस शहर में गुज़ारा नहीं
अजनबी को कहीं पर सहारा नहीं

बह गया मैं अगर, तो बुरा क्या हुआ ?
खींच लेती किसे तेज़ धारा नहीं

आरज़ू में जनम भर खड़ा मैं रहा
आपने ही कभी तो पुकारा नहीं

हाथ मैंने बढ़ाया किया बारहा
आपको साथ मेरा गवारा नहीं

मौन भाषा हृदय की उन्हें क्यों छुए ?
जो समझते नयन का इशारा नहीं

मैं भटकता रहा रौशनी के लिए
गगन में कहीं एक तारा नहीं

लौटने का नहीं अब कभी नाम लो
सामने है शिखर और चारा नहीं

बस, लहर ही लहर एक पर एक है
सिंधु ही है, कहीं भी किनारा नहीं

ग़ज़ल की फसल यह इसी खेत की
किसी और का घर सँवारा नहीं

निर्वचन



                                           रचनाकार: आरसी प्रसाद सिंह

चेतना के हर शिखर पर हो रहा आरोह मेरा।
अब न झंझावात है वह अब न वह विद्रोह मेरा।

भूल जाने दो उन्हें, जो भूल जाते हैं किसी को।
भूलने वाले भला कब याद आते हैं किसी को?
टूटते हैं स्वप्न सारे, जा रहा व्यामोह मेरा।
चेतना के हर शिखर पर हो रहा आरोह मेरा।

ग्रीष्म के संताप में जो प्राण झुलसे लू-लपट से,
बाण जो चुभते हृदय में थे किसी के छल-कपट से!
अब उन्हीं चिनगारियों पर बादलों ने राग छेड़ा।
चेतना के हर शिखर पर हो रहा आरोह मेरा।

जो धधकती थी किसी दिन, शांत वह ज्वालामुखी है।
प्रेम का पीयूष पी कर हो गया जीवन सुखी है।
कालिमा बदली किरण में ; गत निशा, आया सवेरा।
चेतना के हर शिखर पर हो रहा आरोह मेरा।

चिड़िया


                                           रचनाकार: आरसी प्रसाद सिंह
पीपल की ऊँची डाली पर बैठी चिड़िया गाती है ।
तुम्हें ज्ञात अपनी बोली में क्या संदेश सुनाती है ?

चिड़िया बैठी प्रेम-प्रीति की रीति हमें सिखलाती है ।
वह जग के बंदी मानव को मुक्ति-मंत्र बतलाती है ।

वन में जितने पंछी हैं- खंजन, कपोत, चातक, कोकिल,
काक, हंस, शुक, आदि वास करते सब आपस में हिलमिल ।

सब मिल-जुलकर रहते हैं वे, सब मिल-जुलकर खाते हैं ।
आसमान ही उनका घर है, जहाँ चाहते, जाते हैं ।

रहते जहाँ, वहीं वे अपनी दुनिया एक बनाते हैं ।
दिनभर करते काम रात में पेड़ों पर सो जाते हैं ।

उनके मन में लोभ नहीं है, पाप नहीं, परवाह नहीं ।
जग का सारा माल हड़पकर जीने की भी चाह नहीं ।

जो मिलता है, अपने श्रम से उतना भर ले लेते हैं ।
बच जाता तो औरों के हित, उसे छोड़ वे देते हैं ।

सीमा-हीन गगन में उड़ते निर्भय विचरण करते हैं ।
नहीं कमाई से औरों की अपना घर वे भरते हैं ।

वे कहते हैं-- मानव, सीखो तुम हमसे जीना जग में ।
हम स्वच्छंद, और क्यों तुमने डाली है बेड़ी पग में ?

तुम देखो हमको, फिर अपनी सोने की कड़ियाँ तोड़ो ।
ओ मानव, तुम मानवता से द्रोह भावना को छोड़ो ।

पीपल की डाली पर चिड़िया यही सुनाने आती है ।
बैठ घड़ीभर, हमें चकित कर, गाकर फिर उड़ जाती है ।

तुम्हारी प्रेम-वीणा का अछूता तार


                                रचनाकार: आरसी प्रसाद सिंह
तुम्हारी प्रेम-वीणा का अछूता तार मैं भी हूँ
मुझे क्यों भूलते वादक विकल झंकार मैं भी हूँ

मुझे क्या स्थान-जीवन देवता होगा न चरणों में
तुम्हारे द्वार पर विस्मृत पड़ा उपहार मैं भी हूँ

बनाया हाथ से जिसको किया बर्बाद पैरों से
विफल जग में घरौंदों का क्षणिक संसार मैं भी हूँ

खिला देता मुझे मारूत मिटा देतीं मुझे लहरें
जगत में खोजता व्याकूल किसी का प्यार मैं भी हूँ

कभी मधुमास बन जाओ हृदय के इन निकुंजों में
प्रतीक्षा में युगों से जल रही पतझाड़ मैं भी हूँ

सरस भुज बंध तरूवर का जिसे दुर्भाग्य से दुस्तर
विजन वन वल्लरी भूतल-पतित सुकुमार मैं भी हूँ

सैर सपाटा


                            रचनाकार: आरसी प्रसाद सिंह

कलकत्ते से दमदम आए
बाबू जी के हमदम आए
हम वर्षा में झमझम आए
बर्फी, पेड़े, चमचम लाए।

खाते पीते पहुँचे पटना
पूछो मत पटना की घटना
पथ पर गुब्बारे का फटना
तांगे से बेलाग उलटना।

पटना से हम पहुँचे राँची
राँची में मन मीरा नाची
सबने अपनी किस्मत जाँची
देश-देश की पोथी बाँची।

राँची से आए हम टाटा
सौ-सौ मन का लो काटा
मिला नहीं जब चावल आटा
भूल गए हम सैर सपाटा !

जीवन का झरना


                                     रचनाकार: आरसी प्रसाद सिंह

यह जीवन क्या है ? निर्झर है, मस्ती ही इसका पानी है ।
सुख-दुख के दोनों तीरों से चल रहा राह मनमानी है ।

कब फूटा गिरि के अंतर से ? किस अंचल से उतरा नीचे ?
किस घाटी से बह कर आया समतल में अपने को खींचे ?

निर्झर में गति है, जीवन है, वह आगे बढ़ता जाता है !
धुन एक सिर्फ़ है चलने की, अपनी मस्ती में गाता है ।

बाधा के रोड़ों से लड़ता, वन के पेड़ों से टकराता,
बढ़ता चट्टानों पर चढ़ता, चलता यौवन से मदमाता ।

लहरें उठती हैं, गिरती हैं; नाविक तट पर पछताता है ।
तब यौवन बढ़ता है आगे, निर्झर बढ़ता ही जाता है ।

निर्झर कहता है, बढ़े चलो ! देखो मत पीछे मुड़ कर !
यौवन कहता है, बढ़े चलो ! सोचो मत होगा क्या चल कर ?

चलना है, केवल चलना है ! जीवन चलता ही रहता है !
रुक जाना है मर जाना ही, निर्झर यह झड़ कर कहता है !

नए जीवन का गीत


                                 रचनाकार: आरसी प्रसाद सिंह 




मैंने एक किरण माँगी थी, तूने तो दिनमान दे दिया।
चकाचौंध से भरी चमक का जादू तड़ित-समान दे दिया।
मेरे नयन सहेंगे कैसे यह अमिताभा, ऐसी ज्वाला?
मरुमाया की यह मरीचिका? तुहिनपर्व की यह वरमाला?
हुई यामिनी शेष न मधु की, तूने नया विहान दे दिया।
मैंने एक किरण मांगी थी, तूने तो दिनमान दे दिया।

अपने मन के दर्पण में मैं किस सुन्दर का रूप निहारूँ?
नव-नव गीतों की यह रचना किसके इंगित पर बलिहारूँ?
मानस का मोती लेगी वह कौन अगोचर राजमराली?
किस वनमाली के चरणों में अर्पित होगी पूजा-थाली?
एक पुष्प के लोभी मधुकर को वसन्त-उद्यान दे दिया।
मैंने एक किरण माँगी थी, तूने तो दिनमान दे दिया।
मलयानिल होता, तो मेरे प्राण सुमन-से फूले होते।
पल्लव-पल्लव की डालों पर हौले-हौले झूले होते।
एक चाँद होता, तो सारी रात चकोर बना रह जाता।
किन्तु, निबाहे कैसे कोई लाख-लाख तारों से नाता?
लघु प्रतिमा के एक पुजारी को अतुलित पाषाण दे दिया।
मैंने एक किरण माँगी थी, तूने तो दिनमान दे दिया।

ओ अनन्त करुणा के सागर, ओ निर्बन्ध मुक्ति के दानी।
तेरी अपराजिता शक्ति का हो न सकूँगा मैं अभिमानी।
कैसे घट में सिन्धु समाए? कैसे रज से मिले धराधर।
एक बूँद के प्यासे चातक के अधरों पर उमड़ा सागर।
देवालय की ज्योति बनाकर दीपक को निर्वाण दे दिया।
मैंने एक किरण माँगी थी, तूने तो दिनमान दे दिया।
मुँहमांगा वर देकर तूने मेरा मंगल चाहा होगा।
शायद मैंने भी याचक बन अपना भाग्य सराहा होगा।
इसीलिए, तूने गुलाब को क्या काँटों की सेज सुलाया?
रत्नाकर के अन्तस्तल में दारुण बड़वानल सुलगाया?
अपनी अन्ध वन्दना को क्यों मेरा मर्मस्थान दे दिया?
मैंने एक किरण मांगी थी, तूने तो दिनमान दे दिया।

9/01/2012

इंसानियत का आत्मकथ्य

        रचनाकार: अनुपमा  पाठक                                                                                                                            
गुज़रती रही सदियाँ
बीतते रहे पल
आए
कितने ही दलदल
पर झेल सब कुछ
अब तक अड़ी हूँ मैं !
अटल खड़ी हूँ मैं !

अट्टालिकाएँ करें अट्टहास
गर्वित उनका हर उच्छ्वास
अनजान इस बात से कि
नींव बन पड़ी हूँ मैं !
अटल खड़ी हूँ मैं !

देख नहीं पाते तुम
दामन छुड़ा हो जाते हो गुम
पर मैं कैसे बिसार दूँ
इंसानियत की कड़ी हूँ मैं !
अटल खड़ी हूँ मैं !

जब-जब हारा तुम्हारा विवेक
आए राह में रोड़े अनेक
तब-तब कोमल एहसास बन
परिस्थितियों से लड़ी हूँ मैं !
अटल खड़ी हूँ मैं !

भूलते हो जब राह तुम
घेर लेते हैं जब सारे अवगुण
तब जो चोट कर होश में लाती है
वो मार्गदर्शिका छड़ी हूँ मैं !
अटल खड़ी हूँ मैं !

मैं नहीं खोई, खोया है तुमने वजूद
इंसान बनो इंसानियत हो तुममें मौज़ूद
फिर धरा पर ही स्वर्ग होगा
प्रभु-प्रदत्त नेमतों में, सबसे बड़ी हूँ मैं !
अटल खड़ी हूँ मैं !














आंसू चुनते किसी मोड़ पर मिलो कभी हमको

                  रचनाकार: अनुपमा पाठक                                                                             
भूलना हो
अगर अपना दर्द
तो अपनाओ
औरों के गम को!
राह में तुम भी हो
राह में हम भी हैं
आंसू चुनते
किसी मोड़ पर
मिलो कभी हमको!!

रौशनी को
ढूंढना चाहते हो
तो समझो
घेरे हुए तम को!
आत्मा के प्रकाश से
उज्जवल होगा परिवेश
तोड़ो इस
प्रतिपल बढ़ते
अन्धकार के भ्रम को!!

ये क्या चल रहा है
उत्तरोत्तर
रोको इस
ह्रास के क्रम को!
राह में तुम भी हो
राह में हम भी हैं
आंसू चुनते
किसी मोड़ पर
मिलो कभी हमको!!

कबतक ऐसे
निरर्थक कटेगा वक्त
सार्थक करें कुछ तो
इस मानव जन्म को!
इस काया से
काज हो पावन
मानें
सर्वोपरि
मानव धर्म को!!

चेतनाएं करवटें लेती हैं
शब्द अमर हो जाते हैं
गर एक बार वो तेज
हासिल हो जाये कलम को!
राह में तुम भी हो
राह में हम भी हैं
आंसू चुनते
किसी मोड़ पर
मिलो कभी हमको!!

सिपाही

                  
                   रचनाकार:    रामधारी सिंह "दिनकर"

                                                                                                             













































































































































































वनिता की ममता न हुई, सुत का न मुझे कुछ छोह हुआ,
ख्याति, सुयश, सम्मान, विभव का, त्यों ही, कभी न मोह हुआ।
जीवन की क्या चहल-पहल है, इसे न मैने पहचाना,
सेनापति के एक इशारे पर मिटना केवल जाना।

मसि की तो क्या बात? गली की ठिकरी मुझे भुलाती है,
जीते जी लड़ मरूं, मरे पर याद किसे फिर आती है?
इतिहासों में अमर रहूँ, है एसी मृत्यु नहीं मेरी,
विश्व छोड़ जब चला, भुलाते लगती फिर किसको देरी?

जग भूले पर मुझे एक, बस सेवा धर्म निभाना है,
जिसकी है यह देह उसी में इसे मिला मिट जाना है।
विजय-विटप को विकच देख जिस दिन तुम हृदय जुड़ाओगे,
फूलों में शोणित की लाली कभी समझ क्या पाओगे?

वह लाली हर प्रात क्षितिज पर आ कर तुम्हे जगायेगी,
सायंकाल नमन कर माँ को तिमिर बीच खो जायेगी।
देव करेंगे विनय किंतु, क्या स्वर्ग बीच रुक पाऊंगा?
किसी रात चुपके उल्का बन कूद भूमि पर आऊंगा।

तुम न जान पाओगे, पर, मैं रोज खिलूंगा इधर-उधर,
कभी फूल की पंखुड़ियाँ बन, कभी एक पत्ती बन कर।
अपनी राह चली जायेगी वीरों की सेना रण में,
रह जाऊंगा मौन वृंत पर, सोच न जाने क्या मन में!

तप्त वेग धमनी का बन कर कभी संग मैं हो लूंगा,
कभी चरण तल की मिट्टी में छिप कर जय जय बोलूंगा।
अगले युग की अनी कपिध्वज जिस दिन प्रलय मचाएगी,
मैं गरजूंगा ध्वजा-श्रंग पर, वह पहचान न पायेगी।

'न्यौछावर मैं एक फूल पर', जग की ऎसी रीत कहाँ?
एक पंक्ति मेरी सुधि में भी, सस्ते इतने गीत कहाँ?

कविते! देखो विजन विपिन में वन्य कुसुम का मुरझाना,
व्यर्थ न होगा इस समाधि पर दो आँसू कण बरसाना।


8/30/2012

ठुकरा दो या प्यार करो


Subhadra Kumari Chauhan


जंग में हूँ बहार मुश्किल है

       रचनाकार: अनिरुद्ध सिन्हा

जंग में हूँ बहार मुश्किल है
दस्ते-क़ातिल का प्यार मुश्किल है

फिर तसल्ली सवाल बन जाए
फिर तेरा इंतज़ार मुश्किल है

ख़त गया है जवाब आने तक
बीच का अख़्तियार मुश्किल है

उँगलियों का सलाम हाज़िर है
सादगी का सिंगार मुश्किल है

है ये मुमकिन तनाव देखें वो
देख लेंगे दरार मुश्किल है

घर की नाज़ुक बातों से

             रचनाकार: अनिरुद्ध सिन्हा

घर की नाज़ुक बातों से समझाते हैं
आँखों के पत्थर भी नम हो जाते हैं

शासन के वैसे हम एक बिजूका हैं
बच्चे जिस पर पत्थर तेज़ चलाते हैं

नोच वही देते हैं सारी तस्वीरें
अपने भीतर सोच नहीं जो पाते हैं

रात भटकती, सुबह सरकती साँसों पर
दुविधाओं के जंगल भी उग आते हैं

परजीवी आकाश पकड़ती दुनिया के
खूनी पंजे वाले हाथ बढ़ाते हैं!

गुज़रे दिनों

                       रचनाकार: अनिरुद्ध सिन्हा

गुज़रे दिनों की एक मुकम्मल क़िताब हूँ
पन्ने पलट के देखिए मैं इंकलाब हूँ

मुमकिन पतों के बाद भी पहुँचे न जो कभी
वैसे ख़तों का लौट के आया जवाब हूँ

ऐसा लगा कि झूठ भी सच बोलने लगा
पीकर न होश में रहे, मैं वो शराब हूँ

हद से कहीं हँसा न दें मेरी कहानियाँ
इक मुख़्तसर-सी रात का नन्हा-सा ख़्वाब हूँ

माली ने ही सलीके से टहनी मरोड़ दी
इल्ज़ाम सिर लगा मेरे, मैं तो गुलाब हूँ!

8/29/2012

इस मफ़लिसी के दौर से बचकर रहा करे

                                                             रचनाकार: अनिरुद्ध सिन्हा
इस मफ़लिसी के दौर से बचकर रहा करे
बाहर ज़मीं की धूल है अंदर रहा करे ।

दहलीज़ को खंगालती रहती हैं बारिशें
मिट्टी के इन घरों में भी छप्पर रहा करे ।

जिससे कि चाँद ख़्वाब के दामन में रह सके
आँखों में वो यक़ीन का मंज़र रहा करे ।

रिश्तों को आँख से नहीं इतना गिराइए
कुछ तो बिछुड़ के मिलने का अवसर रहा करे ।

गलियों में एहतियात के नारों के बावजूद
तहदारियों के हाथ में पत्थर रहा करे ।

अपने भीतर झाँक लें अपनी कमी को देख लें

                                             By अनिरुद्ध सिन्हा

अपने भीतर झाँक लें अपनी कमी को देख लें
इस लतीफ़ों के शहर में ज़िन्दगी को देख लें ।

तालियों के शोर में उनकी सहज मुस्कान में
दर्द का काँटा चुभाकर रहबरी को देख लें ।

प्यार से छूकर गया जो गूँथकर चिंगारियाँ
वक़्त के पहलू में वैसे अजनबी को देख लें ।

रंग आवाज़ों के बदलेंगे उछालो रोटियाँ
एक मुद्दत से खड़ी इस मफ़लिसी को देख लें ।

कब तलक गर्दन हमारी न्याय-मंचों तक रहे
सिलपटों में इस व्यथा की वर्तनी को देख लें ।