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1/14/2019

Muhajir Nama

मुहाजिर हैं मगर हम एक दुनिया छोड़ आए हैं,
तुम्हारे पास जितना है हम उतना छोड़ आए हैं ।

कहानी का ये हिस्सा आज तक सब से छुपाया है,
कि हम मिट्टी की ख़ातिर अपना सोना छोड़ आए हैं ।

नई दुनिया बसा लेने की इक कमज़ोर चाहत में,      
पुराने घर की दहलीज़ों को सूना छोड़ आए हैं ।

अक़ीदत से कलाई पर जो इक बच्ची ने बाँधी थी,
वो राखी छोड़ आए हैं वो रिश्ता छोड़ आए हैं ।

जो इक पतली सड़क उन्नाव से मोहान जाती है,
वहीं हसरत के ख़्वाबों को भटकता छोड़ आए हैं ।

यक़ीं आता नहीं, लगता है कच्ची नींद में शायद, 
हम अपना घर गली अपना मोहल्ला छोड़ आए हैं ।

हमारे लौट आने की दुआएँ करता रहता है,
हम अपनी छत पे जो चिड़ियों का जत्था छोड़ आए हैं ।

हमें हिजरत की इस अन्धी गुफ़ा में याद आता है,
अजन्ता छोड़ आए हैं एलोरा छोड़ आए हैं ।

सभी त्योहार मिलजुल कर मनाते थे वहाँ जब थे,
दिवाली छोड़ आए हैं दशहरा छोड़ आए हैं ।

हमें सूरज की किरनें इस लिए तक़लीफ़ देती हैं,
अवध की शाम काशी का सवेरा छोड़ आए हैं ।

गले मिलती हुई नदियाँ गले मिलते हुए मज़हब,
इलाहाबाद में कैसा नज़ारा छोड़ आए हैं ।

हम अपने साथ तस्वीरें तो ले आए हैं शादी की,
किसी शायर ने लिक्खा था जो सेहरा छोड़ आए हैं ।

कई आँखें अभी तक ये शिकायत करती रहती हैं, 
के हम बहते हुए काजल का दरिया छोड़ आए हैं । 

ये हिजरत तो नहीं थी बुजदिली शायद हमारी थी,
के हम बिस्तर में एक हड्डी का ढाचा छोड़ आए हैं । 

महीनो तक तो अम्मी ख्वाब में भी बुदबुदाती थीं,
सुखाने के लिए छत पर पुदीना छोड़ आए हैं । 

वजारत भी हमारे वास्ते कम मर्तबा होगी,
हम अपनी माँ के हाथों में निवाला छोड़ आए हैं । 

यहाँ आते हुए हर कीमती सामान ले आए,
मगर इकबाल का लिखा तराना छोड़ आए हैं । 

हिमालय से निकलती हर नदी आवाज़ देती थी,
मियां आओ वजू कर लो ये जूमला छोड़ आए हैं । 

वजू करने को जब भी बैठते हैं याद आता है,
के हम जल्दी में जमुना का किनारा छोड़ आए हैं । 

उतार आये मुरव्वत और रवादारी का हर चोला,
जो एक साधू ने पहनाई थी माला छोड़ आए हैं । 

जनाबे मीर का दीवान तो हम साथ ले आये,
मगर हम मीर के माथे का कश्का छोड़ आए हैं । 

उधर का कोई मिल जाए इधर तो हम यही पूछें,
हम आँखे छोड़ आये हैं के चश्मा छोड़ आए हैं । 

हमारी रिश्तेदारी तो नहीं थी हाँ ताल्लुक था, 
जो लक्ष्मी छोड़ आये हैं जो दुर्गा छोड़ आए हैं । 

गले मिलती हुई नदियाँ गले मिलते हुए मज़हब, 
इलाहाबाद में कैसा नाज़ारा छोड़ आए हैं । 

कल एक अमरुद वाले से ये कहना गया हमको, 
जहां से आये हैं हम इसकी बगिया छोड़ आए हैं । 

वो हैरत से हमे तकता रहा कुछ देर फिर बोला, 
वो संगम का इलाका छुट गया या छोड़ आए हैं। 

अभी हम सोच में गूम थे के उससे क्या कहा जाए,
हमारे आन्सुयों ने राज खोला छोड़ आए हैं । 

मुहर्रम में हमारा लखनऊ इरान लगता था, 
मदद मौला हुसैनाबाद रोता छोड़ आए हैं ।

जो एक पतली सड़क उन्नाव से मोहान जाती है,
वहीँ हसरत के ख्वाबों को भटकता छोड़ आए हैं ।

महल से दूर बरगद के तलए मवान के खातिर,
थके हारे हुए गौतम को बैठा छोड़ आए हैं । 

तसल्ली को कोई कागज़ भी चिपका नहीं पाए,
चरागे दिल का शीशा यूँ ही चटखा छोड़ आए हैं । 

सड़क भी शेरशाही आ गयी तकसीम के जद मैं,
तुझे करके हिन्दुस्तान छोटा छोड़ आए हैं । 

हसीं आती है अपनी अदाकारी पर खुद हमको,
बने फिरते हैं युसूफ और जुलेखा छोड़ आए हैं । 

गुजरते वक़्त बाज़ारों में अब भी याद आता है,
किसी को उसके कमरे में संवरता छोड़ आए हैं ।

हमारा रास्ता तकते हुए पथरा गयी होंगी,
वो आँखे जिनको हम खिड़की पे रखा छोड़ आए हैं । 

तू हमसे चाँद इतनी बेरुखी से बात करता है 
हम अपनी झील में एक चाँद उतरा छोड़ आए हैं । 

ये दो कमरों का घर और ये सुलगती जिंदगी अपनी,
वहां इतना बड़ा नौकर का कमरा छोड़ आए हैं । 

हमे मरने से पहले सबको ये ताकीत करना है , 
किसी को मत बता देना की क्या-क्या छोड़ आए हैं ।

दुआ के फूल जहाँ पंडितजी तकसीम करते थे,
वो मंदिर छोड़ आये हैं, शिवाला छोड़ आये हैं 

दुपट्टा सलीके से ओढ़ती होगी अब शायद, 
वो भतीजी जिसको हम झूले पर हुमकता छोड़ आये हैं 

ज़िन्दगी की आपाधापी में चंद सिक्कों की खातिर,
हम भी अपना लखनऊ वहीँ पर छोड़ आये हैं 

कभी होता है थक कर जिक्र इन बातों का, 
धडकने पूछती है यादें छोड़ आएं या ज़िन्दगी छोड़ आये हैं 

By Munawwar Rana

क्या शबाब था कि फूल-फूल प्यार कर उठा

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स्वप्न झरे फूल से,
मीत चुभे शूल से,
लुट गये सिंगार सभी बाग़ के बबूल से,
और हम खड़े-खड़े बहार देखते रहे
कारवां गुज़र गया, गुबार देखते रहे!

नींद भी खुली न थी कि हाय धूप ढल गई,
पाँव जब तलक उठे कि ज़िन्दगी फिसल गई,
पात-पात झर गये कि शाख़-शाख़ जल गई,
चाह तो निकल सकी न, पर उमर निकल गई,
गीत अश्क़ बन गए,
छंद हो दफ़न गए,
साथ के सभी दिऐ धुआँ-धुआँ पहन गये,
और हम झुके-झुके,
मोड़ पर रुके-रुके
उम्र के चढ़ाव का उतार देखते रहे
कारवां गुज़र गया, गुबार देखते रहे.

क्या शबाब था कि फूल-फूल प्यार कर उठा,
क्या सुरूप था कि देख आइना मचल उठा
इस तरफ जमीन और आसमां उधर उठा,
थाम कर जिगर उठा कि जो मिला नज़र उठा,
एक दिन मगर यहाँ,
ऐसी कुछ हवा चली,
लुट गयी कली-कली कि घुट गयी गली-गली,
और हम लुटे-लुटे,
वक्त से पिटे-पिटे,
साँस की शराब का खुमार देखते रहे
कारवां गुज़र गया, गुबार देखते रहे.

हाथ थे मिले कि जुल्फ चाँद की सँवार दूँ,
होंठ थे खुले कि हर बहार को पुकार दूँ,
दर्द था दिया गया कि हर दुखी को प्यार दूँ,
और साँस यूँ कि स्वर्ग भूमी पर उतार दूँ,
हो सका न कुछ मगर,
शाम बन गई सहर,
वह उठी लहर कि दह गये किले बिखर-बिखर,
और हम डरे-डरे,
नीर नयन में भरे,
ओढ़कर कफ़न, पड़े मज़ार देखते रहे
कारवां गुज़र गया, गुबार देखते रहे!

माँग भर चली कि एक, जब नई-नई किरन,
ढोलकें धुमुक उठीं, ठुमक उठे चरण-चरण,
शोर मच गया कि लो चली दुल्हन, चली दुल्हन,
गाँव सब उमड़ पड़ा, बहक उठे नयन-नयन,
पर तभी ज़हर भरी,
ग़ाज एक वह गिरी,
पुंछ गया सिंदूर तार-तार हुई चूनरी,
और हम अजान से,
दूर के मकान से,
पालकी लिये हुए कहार देखते रहे.
कारवां गुज़र गया, गुबार देखते रहे.

By Gopal Das Neeraj