Enjoy my personal collection of motivational, inspirational and humanistic poems in Hindi and English, Feel free to share your comment or poem you like, cheers!
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8/30/2012
जंग में हूँ बहार मुश्किल है
रचनाकार: अनिरुद्ध सिन्हा
जंग में हूँ बहार मुश्किल है
दस्ते-क़ातिल का प्यार मुश्किल है
फिर तसल्ली सवाल बन जाए
फिर तेरा इंतज़ार मुश्किल है
ख़त गया है जवाब आने तक
बीच का अख़्तियार मुश्किल है
उँगलियों का सलाम हाज़िर है
सादगी का सिंगार मुश्किल है
है ये मुमकिन तनाव देखें वो
देख लेंगे दरार मुश्किल है
जंग में हूँ बहार मुश्किल है
दस्ते-क़ातिल का प्यार मुश्किल है
फिर तसल्ली सवाल बन जाए
फिर तेरा इंतज़ार मुश्किल है
ख़त गया है जवाब आने तक
बीच का अख़्तियार मुश्किल है
उँगलियों का सलाम हाज़िर है
सादगी का सिंगार मुश्किल है
है ये मुमकिन तनाव देखें वो
देख लेंगे दरार मुश्किल है
घर की नाज़ुक बातों से
रचनाकार: अनिरुद्ध सिन्हा
घर की नाज़ुक बातों से समझाते हैं
आँखों के पत्थर भी नम हो जाते हैं
शासन के वैसे हम एक बिजूका हैं
बच्चे जिस पर पत्थर तेज़ चलाते हैं
नोच वही देते हैं सारी तस्वीरें
अपने भीतर सोच नहीं जो पाते हैं
रात भटकती, सुबह सरकती साँसों पर
दुविधाओं के जंगल भी उग आते हैं
परजीवी आकाश पकड़ती दुनिया के
खूनी पंजे वाले हाथ बढ़ाते हैं!
घर की नाज़ुक बातों से समझाते हैं
आँखों के पत्थर भी नम हो जाते हैं
शासन के वैसे हम एक बिजूका हैं
बच्चे जिस पर पत्थर तेज़ चलाते हैं
नोच वही देते हैं सारी तस्वीरें
अपने भीतर सोच नहीं जो पाते हैं
रात भटकती, सुबह सरकती साँसों पर
दुविधाओं के जंगल भी उग आते हैं
परजीवी आकाश पकड़ती दुनिया के
खूनी पंजे वाले हाथ बढ़ाते हैं!
गुज़रे दिनों
रचनाकार: अनिरुद्ध सिन्हा
गुज़रे दिनों की एक मुकम्मल क़िताब हूँ
पन्ने पलट के देखिए मैं इंकलाब हूँ
मुमकिन पतों के बाद भी पहुँचे न जो कभी
वैसे ख़तों का लौट के आया जवाब हूँ
ऐसा लगा कि झूठ भी सच बोलने लगा
पीकर न होश में रहे, मैं वो शराब हूँ
हद से कहीं हँसा न दें मेरी कहानियाँ
इक मुख़्तसर-सी रात का नन्हा-सा ख़्वाब हूँ
माली ने ही सलीके से टहनी मरोड़ दी
इल्ज़ाम सिर लगा मेरे, मैं तो गुलाब हूँ!
गुज़रे दिनों की एक मुकम्मल क़िताब हूँ
पन्ने पलट के देखिए मैं इंकलाब हूँ
मुमकिन पतों के बाद भी पहुँचे न जो कभी
वैसे ख़तों का लौट के आया जवाब हूँ
ऐसा लगा कि झूठ भी सच बोलने लगा
पीकर न होश में रहे, मैं वो शराब हूँ
हद से कहीं हँसा न दें मेरी कहानियाँ
इक मुख़्तसर-सी रात का नन्हा-सा ख़्वाब हूँ
माली ने ही सलीके से टहनी मरोड़ दी
इल्ज़ाम सिर लगा मेरे, मैं तो गुलाब हूँ!
8/29/2012
इस मफ़लिसी के दौर से बचकर रहा करे
रचनाकार: अनिरुद्ध सिन्हा
इस मफ़लिसी के दौर से बचकर रहा करे
बाहर ज़मीं की धूल है अंदर रहा करे ।
दहलीज़ को खंगालती रहती हैं बारिशें
मिट्टी के इन घरों में भी छप्पर रहा करे ।
जिससे कि चाँद ख़्वाब के दामन में रह सके
आँखों में वो यक़ीन का मंज़र रहा करे ।
रिश्तों को आँख से नहीं इतना गिराइए
कुछ तो बिछुड़ के मिलने का अवसर रहा करे ।
गलियों में एहतियात के नारों के बावजूद
तहदारियों के हाथ में पत्थर रहा करे ।
इस मफ़लिसी के दौर से बचकर रहा करे
बाहर ज़मीं की धूल है अंदर रहा करे ।
दहलीज़ को खंगालती रहती हैं बारिशें
मिट्टी के इन घरों में भी छप्पर रहा करे ।
जिससे कि चाँद ख़्वाब के दामन में रह सके
आँखों में वो यक़ीन का मंज़र रहा करे ।
रिश्तों को आँख से नहीं इतना गिराइए
कुछ तो बिछुड़ के मिलने का अवसर रहा करे ।
गलियों में एहतियात के नारों के बावजूद
तहदारियों के हाथ में पत्थर रहा करे ।
अपने भीतर झाँक लें अपनी कमी को देख लें
By अनिरुद्ध सिन्हा
अपने भीतर झाँक लें अपनी कमी को देख लें
इस लतीफ़ों के शहर में ज़िन्दगी को देख लें ।
तालियों के शोर में उनकी सहज मुस्कान में
दर्द का काँटा चुभाकर रहबरी को देख लें ।
प्यार से छूकर गया जो गूँथकर चिंगारियाँ
वक़्त के पहलू में वैसे अजनबी को देख लें ।
रंग आवाज़ों के बदलेंगे उछालो रोटियाँ
एक मुद्दत से खड़ी इस मफ़लिसी को देख लें ।
कब तलक गर्दन हमारी न्याय-मंचों तक रहे
सिलपटों में इस व्यथा की वर्तनी को देख लें ।
अपने भीतर झाँक लें अपनी कमी को देख लें
इस लतीफ़ों के शहर में ज़िन्दगी को देख लें ।
तालियों के शोर में उनकी सहज मुस्कान में
दर्द का काँटा चुभाकर रहबरी को देख लें ।
प्यार से छूकर गया जो गूँथकर चिंगारियाँ
वक़्त के पहलू में वैसे अजनबी को देख लें ।
रंग आवाज़ों के बदलेंगे उछालो रोटियाँ
एक मुद्दत से खड़ी इस मफ़लिसी को देख लें ।
कब तलक गर्दन हमारी न्याय-मंचों तक रहे
सिलपटों में इस व्यथा की वर्तनी को देख लें ।
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