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Hi, Nice work ... पड़ रही कड़ाके कि सर्दी , ठंडा है मास दिसंबर का , चल रहा पवन है सनन सनन , चू रहा कलेजा अम्बर का , धरती ठरति है पाँव तले ऊपर से झरता है अम्बर , इस हाड कंपाती सर्दी में नंगे पैरों भागे पथ पर , ये कौन सिहरती जाती है ये कौन हहरती जाती है, भूखे भारत कि प्रतिमा सी ये कौन बिखरती जाती है ||
This poem was in syllabus of Hindi book, 10th std (Rajasthan board, hindi medium) till 1998. I read it when I was in 7th or 8th std and liked it alot. It was out of the syllabus when I came to 10th std and never got a chance to re-read it. I still have few lines in my mind but can`t recollect fully. I am crazily searching it and name of poet from last 1-2 yrs but remained unsuccessful :-(. I need your help in finding the poem or poet. Thanks
I was looking for this poem all across the Internet and I couldn't find it anywhere. I came across this page and saw a lot of people here have asked for this. I saw a comment by Dr. Manoj Soni, saying he has it. I texted the number with not much hope but to my pleasant surprise, he indeed had it and immediately sent me the pictures on WhatsApp. So here it is, I have typed it out for everyone else who came here looking for it:
पड़ रही कड़ाके की सर्दी, ठंडा है मास दिसम्बर का। चल रहा पवन है सनन-सनन, चू रहा कलेजा अम्बर का। धरती ठरती है पैर तले, ऊपर से झरता है अम्बर। इस हाड कंपाती सर्दी में, नंग पैरों, भागे पथ पर।।१।।
यह कौन सिहरती जाती है, यह कौन ठिठुरती जाती है। भूखे भारत की प्रतिमा सी, यह कौन हररती जाती है। तन पर है इक लुटी दुपट्टी, कुछ इधर फटी कुछ उधर फटी। उसमें ही निज कृश तन समेट, जा रही चली सिमटी-सिमटी।।२।।
जब शीत पवन के झोंकों से, पट उड़ जाता है फरर-फरर। कंप जाता तन का रोम-रोम, रह जाता अंतर सिहर-सिहर। तन फटा हुआ, मन फटा हुआ, हो रहे वसन भी तार-तार। जिनके भीतर से झाँक-झाँक, निर्धनता करती है पुकार।।३।।
किस शाहजहाँ हतभागे की, मुमताज सिसकती जाती है। देखो भारत की भूख स्वयं, साकार सिसकती जाती है। यह भारत की मजदूरिन है, साँपों को दूध पिलाती है। अज्ञान भरे निज लोहू से, शोषण के दीप जलाती है।।४।।
इसके पीछे-पीछे कोई ओढ़े चलता मोटा कम्बल। जिसका गौरव मूँछों में है, लाठी में सब प्रश्नों का हल। है दंभ खेलता चेहरे पर, गति में पद-पद पर अहंकार। अपनी बर्बरता के गुमान में, चलता है सीना उभार।।५।।
उसको न देश से मतलब है, उसको न चाहिए आजादी। उसकी रोटी बस बनी रहे, चाहे जग की हो बरबादी। यह ठाकुर का कारिंदा है, जो केवल हुक्म बजाता है। इस दमयन्ती के साथ तभी, तो लगा व्याघ-सा जाता है।।६।।
वह इसे घेरने आता है, वह इसे "टोलने" आया है। ठाकुर ने कुछ मजदूरों, सूर्योदय पूर्व बुलाया है। हो रही मरम्मत महलों की, ठाकुर की बेटी ब्याहेगी। हर घर के एक-एक प्राणी से, बेगार रोज ली जाएगी।।७।।
पति ज्वर से पीड़ित हुआ, इससे पत्नी जा रही वहाँ। ऊँचे से टीले पर ठाकुर का, बना हुआ है महल जहाँ। पति की चिन्ता को छोड़, इसे ठाकुर का महल बनाना है। मजदूरी में गाली, धक्के, लातें खाकर घर आना है।।८।।
अपनी गोदी में लिए हुए, अपने अभिशापों की गठरी। यह चली सरकती जाती है, नारी का रूप लिए ठठरी। यह भारत की बेगारिन है, साँपों को दूध पिलाती है। अज्ञान भरी निज लोहू से, शोषण के दीप जलाती है।।९।।
अपने बच्चे को पत्थर पर बैठाकर चिथड़ों में लपेट। गंगा मजदूरिन भी उतरी, चूने में निज आँचल समेट। घुटनों तक चूने में डूबी, पिलती जाती ले राम नाम। भारत की बदनसीब बेटी, क्या रहा तुम्हारा यही काम।।१०।।
इतने में ग्वाला दूध लिए, ड्योढ़ी पर पधारने आया। पर नाम दूध का सुनते ही, गंगा का बेटा चिल्लाया। "माँ!भूख लगी, माँ दूध पिला, मैं दूध पिऊँगा, दूध पिला।" गंगा ने पुचकारा, लेकिन वह पसर गया, रोया, मचला।।११।।
तब उधर कुँवरजी लिए हुए, कुत्ता ड्योढ़ी पर आते हैं। फिर बड़े प्यार से बैठा गोद में, उसको दूध पिलाते हैं। वह लिपट-लिपट माँ से बोला, क्यों नहीं पिलाती दूध मुझे। इतने में उबला कारिन्दा, क्यों बैठी री? क्या हुआ तुझे।।१२।।
बच्चा रोता है रोने दे,रोने से क्यों घबराती है। टुकड़ों के तो लाले पड़ते, औ साध दूध की आती है। फिर विवश उठी वह कंगालिन, शोषण का चक्र घुमाने को। अपने बच्चे के आँसू पी, कुत्तों का दूध जुटाने को।।१३।।
आखिर जब धीरज छूट गया, बच्चे का कन्दन सुन-सुनकर। बेटे की भूख मिटाने माँ, लपकी चुल्लू में चूना भर। हा! आज दूध के बदले में, कान्हे का जी बहलाने को। तैयार जसोदा होती है, चूने का घोल पिलाने को।।१४।।
फिर भी प्रलय नहीं होता, फटती न किसी की छाती है। मंदिर में देव नहीं कंपते, धरती न रसातल जाती है। पर कौन जगत में निर्धन का, जो दहल उठे जो उठे काँप। नरपाल पालते कुत्तों को, लक्ष्मीपति लक्ष्मी के गुलाम।।१५।।
मजदूर तुम्हीं जादूगर हो, मिट्टी से महल बना देते। हो तुम्हीं शक्ति की महा बाढ़, महलों की जड़ें हिला देते। तुम उठो घनी आंधी बनकर, जग पर नंगों भूखों छाओ। मानव के लोहू से जलने वाले, ये रक्त दीप बुझा आओ।।१६।।
मै कब से इस कविता को पूरा पढ़ना चाहता था,मेने कई जगह और नेट pr bhi ढूंढा लेकिन मिल नही पाई, मैं जब दसवीं में था तब यह कविता मुझे बहुत पसंद थी, धन्यवाद आपका
Plz send me this poem "Shoshana ke deep" at m.manojsoni@rediffmail.com. Myself Dr.Manoj soni Navjeevan hospital model town Hisar Haryana mob. 9466465959 Thanks
Iske peeche chal raha koi Daale kandho par mota kambal Jiiska Gaurav mooncho me hai, Laathi me San prashno kaa Hal. Ye thakur ka baashinda hai, Uska hi hukum bajata hai
Don't remember further, but do remember a few lines in the end
I have this poem.just call me on 9466465959. I will send you immediately on WhatsApp. Dr Manoj Soni MS Navjeevan multi-speciality hospital model town Hisar Haryana
तन फटा हुआ मन फटा हुआ हो रहे वसन भी तार तार जिनके भीतर से झांक झांक निर्धनता करती हैं पुकार किस शाहजहाँ हथ भागे की मुमताज सिसकती जाती है देखो भारत की भूख स्वयं साकार सिसकती जाती हे
पड़ रही कड़ाके की सर्दी ठंडा हैं मास दिसंबर का। चल रही पवन हैं सनन सनन चू रहा कालेज अम्बर का।। धरती ठरती हैं पैर तले ऊपर से झरता हैं अम्बर। इस हाड कंपाती सरदी में कहा तक भागे नंगे पथ पर।। यह कौन सिहरती जाती हैं यह कौन हहराती जाती हैं। भूखे भारत की प्रतिमा सी यह कौन सिहरती जाती हैं।। तन पर एक लटी दुपट्टी सी कुछ इधर फटी कुछ उधर फटी। उसमे ही निज तन कृश समेट लिए जा रही सिमटी सिमटी।। यह शाहजहां हथभागे की मुमताज़ सिसकती जाती हैं। देखो भारत की भूख स्वयं साकार सिमटती जाती हैं।।
कृपया पूरी कविता खोज रहे हैं। जिसमें मजदूरिन अपने बच्चे को चूने का घोल दूध की जगह पिलाती है तब कविता में आता है मंदिर में देव नहीं कंपते फटती ना किसी की छाती है यह भारत की मजदूरिन है सांपों को. दूध पिलाती है। एक कालजयी रचना जो मैंने 1984 मे पढ़ा था। षड्यंत्र के द्वारा हर जगह गायब है
अंतिम पक्तिया.. मजदूर तुम ही जादूगर हो, मिट्टी से महल🏰 बना देते;हो तुम ही शक्ति की महाबाढ महलों की जड़ें हिला देते। तुम उठो😴⏰ घनी आधी बनकर जग पर नंगो भूखो छाओ;मानव के लोहू से जलने वाले ये दीप बूझा जा ओ।।।।।
बच्चा रोता है रोने दे रोने से क्यों घबराती है टुकडों के तो लाले पड़ते और साध दूध की आती है फिर विवश उठी वह कंगलिन शोषण का चक्र घुमाने को तैयार जसोदा होती है चूने का घोल पिलाने को
Please. Tell me the full poem I read it in my nursery class and father liked it soo much I remember only 2 lines and I have tried to search them with it but alas! Unsuccessful
The lines I remember are ऐसी बात नइ , मुझे कराती सर्दी आई Help me please I know it's very difficult and sill of me but please😶😣😯
I was searching this poem for last 26 years and had given up all hopes but u made it possible.I heard it being recited in hindi declamation in my school BPS Pilani when I was in class 9 and its lines always kept echoing in my heart and mind since then but I could not find it anywhere.So I had started to think that I would die without finding the full text of my dearest poem.Honestly I don't know how and in what words should I thank u.My life dream has been fulfilled by you my dearest brother.I will make a nice video and publish it on my youtube channel The Sublime & The ecstatic very soon
Hi,
ReplyDeleteNice work ...
पड़ रही कड़ाके कि सर्दी , ठंडा है मास दिसंबर का ,
चल रहा पवन है सनन सनन , चू रहा कलेजा अम्बर का ,
धरती ठरति है पाँव तले ऊपर से झरता है अम्बर ,
इस हाड कंपाती सर्दी में नंगे पैरों भागे पथ पर ,
ये कौन सिहरती जाती है ये कौन हहरती जाती है,
भूखे भारत कि प्रतिमा सी ये कौन बिखरती जाती है ||
This poem was in syllabus of Hindi book, 10th std (Rajasthan board, hindi medium) till 1998. I read it when I was in 7th or 8th std and liked it alot. It was out of the syllabus when I came to 10th std and never got a chance to re-read it. I still have few lines in my mind but can`t recollect fully. I am crazily searching it and name of poet from last 1-2 yrs but remained unsuccessful :-(.
I need your help in finding the poem or poet. Thanks
sumitra nandan pant ......kavita on nature........
DeleteI am also searching it like crazy. Do let me know if u have got it
Deleteसर, complete कविता send karo please 'रक्त दीप'
DeletePlz send us poems
DeleteMujhe bhi chahiye
DeleteI was looking for this poem all across the Internet and I couldn't find it anywhere. I came across this page and saw a lot of people here have asked for this. I saw a comment by Dr. Manoj Soni, saying he has it. I texted the number with not much hope but to my pleasant surprise, he indeed had it and immediately sent me the pictures on WhatsApp. So here it is, I have typed it out for everyone else who came here looking for it:
Deleteपड़ रही कड़ाके की सर्दी, ठंडा है मास दिसम्बर का।
चल रहा पवन है सनन-सनन, चू रहा कलेजा अम्बर का।
धरती ठरती है पैर तले, ऊपर से झरता है अम्बर।
इस हाड कंपाती सर्दी में, नंग पैरों, भागे पथ पर।।१।।
यह कौन सिहरती जाती है, यह कौन ठिठुरती जाती है।
भूखे भारत की प्रतिमा सी, यह कौन हररती जाती है।
तन पर है इक लुटी दुपट्टी, कुछ इधर फटी कुछ उधर फटी।
उसमें ही निज कृश तन समेट, जा रही चली सिमटी-सिमटी।।२।।
जब शीत पवन के झोंकों से, पट उड़ जाता है फरर-फरर।
कंप जाता तन का रोम-रोम, रह जाता अंतर सिहर-सिहर।
तन फटा हुआ, मन फटा हुआ, हो रहे वसन भी तार-तार।
जिनके भीतर से झाँक-झाँक, निर्धनता करती है पुकार।।३।।
किस शाहजहाँ हतभागे की, मुमताज सिसकती जाती है।
देखो भारत की भूख स्वयं, साकार सिसकती जाती है।
यह भारत की मजदूरिन है, साँपों को दूध पिलाती है।
अज्ञान भरे निज लोहू से, शोषण के दीप जलाती है।।४।।
इसके पीछे-पीछे कोई ओढ़े चलता मोटा कम्बल।
जिसका गौरव मूँछों में है, लाठी में सब प्रश्नों का हल।
है दंभ खेलता चेहरे पर, गति में पद-पद पर अहंकार।
अपनी बर्बरता के गुमान में, चलता है सीना उभार।।५।।
उसको न देश से मतलब है, उसको न चाहिए आजादी।
उसकी रोटी बस बनी रहे, चाहे जग की हो बरबादी।
यह ठाकुर का कारिंदा है, जो केवल हुक्म बजाता है।
इस दमयन्ती के साथ तभी, तो लगा व्याघ-सा जाता है।।६।।
वह इसे घेरने आता है, वह इसे "टोलने" आया है।
ठाकुर ने कुछ मजदूरों, सूर्योदय पूर्व बुलाया है।
हो रही मरम्मत महलों की, ठाकुर की बेटी ब्याहेगी।
हर घर के एक-एक प्राणी से, बेगार रोज ली जाएगी।।७।।
पति ज्वर से पीड़ित हुआ, इससे पत्नी जा रही वहाँ।
ऊँचे से टीले पर ठाकुर का, बना हुआ है महल जहाँ।
पति की चिन्ता को छोड़, इसे ठाकुर का महल बनाना है।
मजदूरी में गाली, धक्के, लातें खाकर घर आना है।।८।।
अपनी गोदी में लिए हुए, अपने अभिशापों की गठरी।
यह चली सरकती जाती है, नारी का रूप लिए ठठरी।
यह भारत की बेगारिन है, साँपों को दूध पिलाती है।
अज्ञान भरी निज लोहू से, शोषण के दीप जलाती है।।९।।
अपने बच्चे को पत्थर पर बैठाकर चिथड़ों में लपेट।
गंगा मजदूरिन भी उतरी, चूने में निज आँचल समेट।
घुटनों तक चूने में डूबी, पिलती जाती ले राम नाम।
भारत की बदनसीब बेटी, क्या रहा तुम्हारा यही काम।।१०।।
इतने में ग्वाला दूध लिए, ड्योढ़ी पर पधारने आया।
पर नाम दूध का सुनते ही, गंगा का बेटा चिल्लाया।
"माँ!भूख लगी, माँ दूध पिला, मैं दूध पिऊँगा, दूध पिला।"
गंगा ने पुचकारा, लेकिन वह पसर गया, रोया, मचला।।११।।
तब उधर कुँवरजी लिए हुए, कुत्ता ड्योढ़ी पर आते हैं।
फिर बड़े प्यार से बैठा गोद में, उसको दूध पिलाते हैं।
वह लिपट-लिपट माँ से बोला, क्यों नहीं पिलाती दूध मुझे।
इतने में उबला कारिन्दा, क्यों बैठी री? क्या हुआ तुझे।।१२।।
बच्चा रोता है रोने दे,रोने से क्यों घबराती है।
टुकड़ों के तो लाले पड़ते, औ साध दूध की आती है।
फिर विवश उठी वह कंगालिन, शोषण का चक्र घुमाने को।
अपने बच्चे के आँसू पी, कुत्तों का दूध जुटाने को।।१३।।
आखिर जब धीरज छूट गया, बच्चे का कन्दन सुन-सुनकर।
बेटे की भूख मिटाने माँ, लपकी चुल्लू में चूना भर।
हा! आज दूध के बदले में, कान्हे का जी बहलाने को।
तैयार जसोदा होती है, चूने का घोल पिलाने को।।१४।।
फिर भी प्रलय नहीं होता, फटती न किसी की छाती है।
मंदिर में देव नहीं कंपते, धरती न रसातल जाती है।
पर कौन जगत में निर्धन का, जो दहल उठे जो उठे काँप।
नरपाल पालते कुत्तों को, लक्ष्मीपति लक्ष्मी के गुलाम।।१५।।
मजदूर तुम्हीं जादूगर हो, मिट्टी से महल बना देते।
हो तुम्हीं शक्ति की महा बाढ़, महलों की जड़ें हिला देते।
तुम उठो घनी आंधी बनकर, जग पर नंगों भूखों छाओ।
मानव के लोहू से जलने वाले, ये रक्त दीप बुझा आओ।।१६।।
मै कब से इस कविता को पूरा पढ़ना चाहता था,मेने कई जगह और नेट pr bhi ढूंढा लेकिन मिल नही पाई, मैं जब दसवीं में था तब यह कविता मुझे बहुत पसंद थी, धन्यवाद आपका
Deleteयह कविता मेरे अंतरमन को छू गई!
DeleteThis poem is written by Ganpati Chandra Bhandari, not Shivmangal Singh Suman.
DeleteYe mere bachpan ki Sabse jyada pasandida kavitaon men se ek hai, bahut dunda Aaj mili hai, many many thanks for sharing this
DeleteI also love this poem and recited this poem when I was In eighth standard.
DeleteI have this poem from Bantu last line
DeleteThe title is "shoshan ke deep". I remember few more lines, have been searching it myself
ReplyDeleteThank you very much sir for this beautiful poem. I am searching this for a long time.👍👍
DeleteIt is poem of Ganpati Chandra Bhandari from Rakt Deep, I also like this too much and want to read again in full.
ReplyDeleteI m also crazy about it..I m also searching this..I read in my class x in 1998
ReplyDeleteYe Kavita mile to mughe bhi send karna
ReplyDeleteMujhe mil gai.. kehaa bhejni hai
ReplyDeleteManish, Can you plese send this poem "shoshan ke deep" at mishra.rahul@gmail.com
DeleteThanks Bhai
Plz send me this poem "Shoshana ke deep" at m.manojsoni@rediffmail.com.
DeleteMyself Dr.Manoj soni Navjeevan hospital model town Hisar Haryana mob. 9466465959 Thanks
Dr. Manish I shall be greatful if you can send this poem "Rakt-Deep" on shivbsharma@gmail.com
Deletegood morning sir
Deletemyself namita pareek , i also need this poem plz send it on my mail id and it is
namitapareek17@yahoo.com
Plz send me this poem on suresh24x7@gmail.com, thanks.
DeletePlease send me on my mail id ashokjangid1721@gmail.com
DeletePlease send it on shashank612@gmail.com. I have been searching for it since long time
Deleteमुझे भी भेजना ....7992340729 please
Deleteकृपया शोषण के दीप कविता मुझे भी भेजे धन्यवाद uday_mudgal@yahoo.co.in
Deleteइसी पर अपलोड कर दीजिये सब पढ़ लेंगे
DeleteSir plzz send me this heart melter poem... @pradhumanv1@gmail.com
DeleteKindly send it to me as well on
Deletedarshanakaushik79@gmail.com. please send as soon as possible .
mujhe bhej do please, mere papa ko chaiye
Deleterahulagarwal4227@gmail.com, is par bhej dijiye
DeletePlease send me on kumarvikasjain@yahoo.co.in
DeleteKisi Ko mile to mujhe bhejana Dr Manoj soni 9466465959
ReplyDeleteI remember it completely...So if anyone still interested I can type it
ReplyDeletePls. Do, thanks in advance
DeleteShiv
Please type it will be helpful.thank you in advance
DeletePlz send me ... this poem amitshrimali.13@gmail.com
DeleteI want it fully plz upload it here
DeleteI want it fully plz upload it here
DeletePlease type it or send it to me at darshanakaushik79@gmail.com
DeleteI also want to read this poem please type it here
ReplyDeleteManeesh viJay sir
ReplyDeletePlz send me this poem at
abhishekbhardwaj1993.ab@gmail.com
Please send me this poem.
ReplyDeleteMy mail I'd shobhabhardwaj28@gmail.com
Please send this poem to me
ReplyDeleteYah Bharat ki begarin hai,
ReplyDeleteSaanpon ko doodh pilati hai
Agyaan bhare Vish lahu see,
Shoshan ke deep jalati hai
Mujhe bhi bhejo... swarnkarneha@gmail.com
DeleteIske peeche chal raha koi
ReplyDeleteDaale kandho par mota kambal
Jiiska Gaurav mooncho me hai,
Laathi me San prashno kaa Hal.
Ye thakur ka baashinda hai,
Uska hi hukum bajata hai
Don't remember further, but do remember a few lines in the end
I have this poem.just call me on 9466465959. I will send you immediately on WhatsApp. Dr Manoj Soni MS Navjeevan multi-speciality hospital model town Hisar Haryana
ReplyDeletePlease send the poem
ReplyDeleteYe kavita puri hai mere pass yakin nhi to aazmalo
ReplyDeletePlease send it on shashank612@gmail.com. I have been searching for it since long time
DeleteUpload kardo bhai, aazmane ki kya jaruruat hai, aap theek hi bata rahe honge.
DeleteCan you plz send it to me
DeleteSend me pls raktdeep poem
ReplyDeleteकृपया शोषण के दीप कविता मुझे भी भेजे धन्यवाद
ReplyDeleteKindly send me on nitbin@gmail.com
ReplyDeleteतन फटा हुआ मन फटा हुआ हो रहे वसन भी तार तार जिनके भीतर से झांक झांक निर्धनता करती हैं पुकार
ReplyDeleteकिस शाहजहाँ हथ भागे की मुमताज सिसकती जाती है
देखो भारत की भूख स्वयं साकार सिसकती जाती हे
जब शीत हवा के झोंको से पट उड जाता हैं फरर फरर कंप जाता तन का रोम रोम रह जाता अन्तर सिहर सिहर
ReplyDeleteThis comment has been removed by the author.
DeleteThis comment has been removed by the author.
DeleteHello Can you please send me this poem at ateetcalla@gmail.com. I am searching for this from many years
Deleteपड़ रही कड़ाके की सर्दी ठंडा हैं मास दिसंबर का।
ReplyDeleteचल रही पवन हैं सनन सनन चू रहा कालेज अम्बर का।।
धरती ठरती हैं पैर तले ऊपर से झरता हैं अम्बर।
इस हाड कंपाती सरदी में कहा तक भागे नंगे पथ पर।।
यह कौन सिहरती जाती हैं यह कौन हहराती जाती हैं।
भूखे भारत की प्रतिमा सी यह कौन सिहरती जाती हैं।।
तन पर एक लटी दुपट्टी सी कुछ इधर फटी कुछ उधर फटी।
उसमे ही निज तन कृश समेट लिए जा रही सिमटी सिमटी।।
यह शाहजहां हथभागे की मुमताज़ सिसकती जाती हैं।
देखो भारत की भूख स्वयं साकार सिमटती जाती हैं।।
Sir complete poem send Karo please 'रक्त दीप'
Deleteकृपया पूरी कविता खोज रहे हैं।
Deleteजिसमें मजदूरिन अपने बच्चे को चूने का घोल दूध की जगह पिलाती है
तब कविता में आता है
मंदिर में देव नहीं कंपते फटती ना किसी की छाती है
यह भारत की मजदूरिन है सांपों को. दूध पिलाती है।
एक कालजयी रचना जो मैंने 1984 मे पढ़ा था। षड्यंत्र के द्वारा हर जगह गायब है
यह भारत की मजदूरिन है सापों को दूध पिलाती है;अज्ञान भरी निज लोहू से शोषण के दीप जलाती है।
ReplyDeleteअंतिम पक्तिया.. मजदूर तुम ही जादूगर हो, मिट्टी से महल🏰 बना देते;हो तुम ही शक्ति की महाबाढ महलों की जड़ें हिला देते। तुम उठो😴⏰ घनी आधी बनकर जग पर नंगो भूखो छाओ;मानव के लोहू से जलने वाले ये दीप बूझा जा ओ।।।।।
ReplyDeleteIf anyone have the rakt deep full poem please send on hemanivishnu@gmail.com
ReplyDeleteThanks
कृपया ये पूरी कविता मुझे भी भेजें
ReplyDeletePlz,
ReplyDeleteकृपया शोषण के दीप कविता की पूरी पंक्तियां या तो पोस्ट करें या मुझे व्यक्तिगत कोई भेज सकता तो भेजें
7016557886
navsoni2001@gmail.com
Plz send me this poetry
ReplyDeleteबच्चा रोता है रोने दे रोने से क्यों घबराती है
ReplyDeleteटुकडों के तो लाले पड़ते और साध दूध की आती है
फिर विवश उठी वह कंगलिन शोषण का चक्र घुमाने को
तैयार जसोदा होती है चूने का घोल पिलाने को
'रक्त दीप 'Send me complete poem please
DeletePlease, send me
ReplyDeleteKindly send it to me . I want this poem
ReplyDelete@darshanakaushik79@gmail.com
Please 🙏
I also searching this poem for last 7 years.
ReplyDeleteइस पर सर भेजिए
ReplyDeleteI have this poem.please send your what's app no to me.I will send you immediately.Dr Manoj Soni 9466465959.I have already sent to about 100 person.
ReplyDeleteNishajain2072017@gmail.com
DeletePlease sand
ReplyDeletePlease. Tell me the full poem I read it in my nursery class and father liked it soo much I remember only 2 lines and I have tried to search them with it but alas! Unsuccessful
ReplyDeleteThe lines I remember are ऐसी बात नइ , मुझे कराती सर्दी आई
Help me please I know it's very difficult and sill of me but please😶😣😯
This poem written byganpati chandra bhandhari,its avilable on www.myshaladarpan.com website
ReplyDeleteतन पर है एक लटि दुपटी
ReplyDeleteकुछ इधर फटी कुछ उधर फटी
उसमें से ताक झाँक निर्धनता करती है पुकार
Plz Bhai logon koi es poem ko merey WhatsApp no per send Kar sakta hai Kya 8005325870. Plz I love this poem
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ReplyDeleteभाई आपको करोदों बार धन्यवाद
I was searching this poem for last 26 years and had given up all hopes but u made it possible.I heard it being recited in hindi declamation in my school BPS Pilani when I was in class 9 and its lines always kept echoing in my heart and mind since then but I could not find it anywhere.So I had started to think that I would die without finding the full text of my dearest poem.Honestly I don't know how and in what words should I thank u.My life dream has been fulfilled by you my dearest brother.I will make a nice video and publish it on my youtube channel The Sublime & The ecstatic very soon
ReplyDeleteबहुत बहुत धन्यवाद राजेश भाई
ReplyDeleteThanks Rajesh ji for sharing this great poem
ReplyDeleteM bhi es poem Ko pura padhna chahta tha, 10 class me padhi thi
ReplyDeleteYaha avalon ke vastra bech Kar vyaj chukar jati he.
ReplyDeleteThanks rajesh ji
ReplyDeleteThanks rajesh ji
ReplyDeleteI have been searching the poem for five years, It's one of the fantastic poem of my school time,today got it. thanks the person who shared it
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